Wednesday, July 2, 2025

          सोच  और  वक्त  की सार्थकता

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            वक्त तो तय था, पर कब आया, और कब चला गया, हमे पता ही नहीं।
            चलना साथ – साथ तो था, पर राह तुमने दिखाया तो नहीं। एक बार मेरी आखों में झाँक तो लेते,पर पलकें तुमने, उठाया तो नहीं।मंजिल बहुत करीब था,पर वक्त, साथ निभाया ही नहीं।
            कारण स्पष्ट है
            हम अचेतन मन के सपनों में सोते रहे।
            सचेतन मन को,तवज्जो दिया ही नहीं।
            सोच, नदियों में बहने वाली एक सतत जल धारा है,जो वक्त की नजाकत में, साहिलों से कभी टकराती ही नहीं।
            हम इंसान, वक्त के गुलाम हैं। वक्त से बड़ा कोई है ही नहीं। ब्रम्हांड की सत्यता में, हर इंसान, समन्दर की एक बूंद मात्र हैं।
            अतः समंदर, से बड़ा कोई है ही नहीं।
            ज़रा सोचिए, वक्त की रफ्तार को :
            साल “2024” की शुरुवात हुई,और आज साल की विदाई के पायदान पर हम खड़े हैं। 2025, अपनी बाहों को आगे बढ़ा दिया है, उसे थामने के लिए, हम खड़े हैं।

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