आज के दौर में,ऐ दोस्त ये, मंज़र क्यों है? उलझनों, के इस दौर में जिंदगी में आज यातना क्यों है?
मंजिलें, स्पष्ट दिखाई देती रही,
पर हमने टेढ़ी -मेढी पगडंडियों को चुना क्यों है?
उलझनें तो मानव निर्मित होता है, फिर भी उलझनों को आमंत्रित किया है,
जो आज, अनियंत्रित क्यों है?
ज़ख्म हर शख्स के सर से पांव तक लहुलुहान है, फिर भी इंसानों के हाथों पत्थर क्यों है?
अपना अंजाम तो मालूम है,
फिर भी अपनी नज़रों में,
हर शख्स सिकंदर क्यों है?
आज के इस दौर में, ऐ दोस्त, ये मंज़र क्यों है?
उलझनों में, हमने अपने
ईश्वर को भुला दी हैं,
जबकि इंसानों के हर ज़र्रे ज़र्रे में,
अपना -अपना ईश्वर बसते हैं,
फिर भी इंसानों की गलियों में मंदिर -म़सजिद क्यों है?
आज इन्सानी मुहब्बतों में ये किसने आग लगा दी है,
जिधर देखो,उन आंखों में, आंसुओ का समंदर क्यों है?
इन सभी प्रश्नों का उत्तर हम सभी के पास है,
पर इंसानों को उत्तर देने में, आज इतना असमर्थ क्यों है?