जिनका बचपन सम्यक हो गया, उनका जीवन अपने आप उजाला बन गया…



मध्यप्रदेश,रवि जैन,7 नवंबर 2025।शुक्रवार का दिन… सूरज की पहली किरण जैसे ही दर्शनोदय अतिशय तीर्थ श्री थूबोन जी की हरियाली पर पड़ी तो ओस की बूंदें मोतियों सी चमक उठीं और हरिभरी वादी स्वर्णिम आभा से नहाई सी लगने लगी। हजारों बच्चों को जैनत्व के संस्कार देने का यह महान आयोजन जैन धर्म के महान संत आचार्य भगवन श्री विद्यासागर जी महामुनिराज के 53वें आचार्य पदारोहण दिवस के पावन अवसर को यादगार बनाने के लिए रखा गया है।
नदी किनारे बसे इस दर्शनोदय तीर्थ की वादियों में शुक्रवार को कुछ अलग ही ऊर्जा थी। मंदिर में बजते घंटों की ध्वनि, बच्चों की किलकारियां और भक्ति के स्वर हवा में घुल हुए थे। चारों तरफ का वातावरण मंगलकारी मंत्रों से गुंजायमान था।
मध्यभारत के सबसे बड़े जैन तीर्थ थूबोन जी में, जहाँ 25 से अधिक विशाल जिनमंदिर हैं, और सभी प्रतिमाएं एक ही पत्थर पर उसी स्थान पर खड़गासन मुद्रा में उकेरी गई हैं, वहीं 28 फीट ऊँचे बड़े बाबा आदिनाथ भगवान की स्वर्णमयी वेदी के सामने क्षेत्र के इतिहास में पहली बार विश्व के सर्वश्रेष्ठ संत के करकमलों से एक अद्भुत आध्यात्मिक अनुष्ठान हो रहा था, जिसका साक्षी बनने के लिए देश दुनिया के लोग उपस्थित थे।
देशभर से आए 3665 बालक, अपने माता-पिता और रिश्तेदारों के साथ नई धोती-दुपट्टे में, गाजे-बाजे के बीच, अष्टद्रव्य की थाली लिए, जब कार्यक्रम स्थल की ओर बढ़े, तो वह दृश्य अविस्मरणीय बन गया। सभी बच्चे घर से मुंडन कराकर आए थे, उनके सिर पर सुधा सूर्य की किरणें चमक रही थीं। बच्चों के साथ उनकी मां, पिता, भाई, बहन और रिश्तेदार भी थे। सभी के भोजन और ठहरने की व्यवस्था दर्शनोदय तीर्थ क्षेत्र कमेटी द्वारा अत्यंत सुव्यवस्थित ढंग से की गई थी।
इस दिन 53वां आचार्य पदारोहण दिवस भी है। सबसे पहले आचार्यश्री की मंगलमयी पूजन की गई और 53 दीपकों से आरती की गई। इस दिन, आचार्यश्री के संकल्प को आगे बढ़ाते हुए, उनके परमशिष्य तीर्थचक्रवर्ती मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज ने देशभर से आए जिनभक्त बालकों को अपने करकमलों से सम्यक्त्व लाभ क्रिया के संस्कार 26 मंत्रों के साथ किए।
“मिट्टी भी स्वर्ण बन जाती है, जब गुरु का स्पर्श उसे मिले,
बचपन भी मंगलमय बन जाए, सुधासागर जी के वरदहस्त तले।”
इस संस्कार कार्यक्रम की व्यवस्थाएं बाल ब्रह्मचारी प्रदीप जैन सुयश के निर्देशन में हुईं। मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज ने स्वयं प्रत्येक बालक के सिर पर अपने करकमलों से मंत्रोच्चार के साथ मौजी बंधन के संस्कार किए। क्षुल्लक श्री गंभीरसागर जी वर्णी महाराज ने बालकों के सिर पर गंधोदक लगाया, वरिष्ठसागर जी महाराज, विदेहसागर जी महाराज और ब्रह्मचारियों ने यह संस्कार की दिव्य क्रियाएं संपन्न कराईं। ब्रह्मचारिणी बहनों ने मंगलगीत गाए। कार्यक्रम के पहले आचार्यश्री विद्यासागर जी की पूजन, और 53 दीपकों से आरती हुई। मंगलाचरण श्री शैलेंद्र श्रृंगार ने किया, संचालन विजय धुर्रा ने किया।
श्रमण शिरोमणि मुनि पुंगव श्री सुधासागर जी महाराज ने कहा-
“आज इतनी सारी चेतन प्रतिमाएं संस्कारित हो रही हैं।
इन बच्चों के जीवन में कोई विपत्ति आएगी नहीं,
और यदि आई भी, तो कुछ बिगाड़ नहीं पाएगी।
यह संस्कार इनके लिए सुरक्षा कवच बन जाएगा।”
उन्होंने समझाया कि जीवन शुरू करने से पहले ऐसा मंगल करना क्यों जरूरी है।
“जैन दर्शन में सगुन की चर्चा ‘मंगल’ के रूप में की गई है।
पूज्यवर जिनसेन स्वामी महाराज ने इसकी शुरुआत की थी,
योग्य गुरु के वरदहस्त से मिला संस्कार, जीवन में स्थायी सुरक्षा बन जाता है।”
“संस्कार वो दीप है, जो जीवन की हर रात में जलता है,
जब गुरु सुधासागर जैसे हों, तो हर संकट पलभर में ढलता है।”
मुनिश्री ने आगे कहा कि जब बच्चा 8 वर्ष का हो जाए, तो उसे नया वस्त्र पहनाकर, रिश्तेदारों के साथ, चंवर ढोरते हुए मंदिर ले जाना चाहिए। बच्चे के हाथ में अष्टद्रव्य की थाली हो, वह भगवान की वंदना करे, अभिषेक करे, और फिर घर के बुजुर्ग उससे कहें–
“हे बालक! तुम आज से भगवान को छूने के योग्य हुए, आहार देने के योग्य हुए।”
फिर घर के सभी लोग उस बालक के हाथ से गंधोदक लें, विधान कराएं, और भगवान के सामने कहें –
“हे प्रभो, हमारे घर में जन्मा यह बालक आज जैनत्व का संस्कार पा रहा है,
इसे धर्म की दीर्घ ज्योति मिले।”
थूबोन जी की पावन धरा पर 10 हजार से अधिक श्रद्धालु इस दृश्य के साक्षी बने। बच्चों के माथे पर गुरुकृपा का स्पर्श हुआ, तो माता-पिता की आँखों से अश्रु बह निकले, वह आंसू केवल आनंद के नहीं थे, वह एक विश्वास के थे कि आज उनके बच्चों को वह कवच मिला है जो जन्म-जन्मांतर तक रक्षा करेगा।
“गुरुकृपा जब सिर पर होती है, तो भाग्य भी झुक जाता है,
सुधासागर का आशीष मिले – तो संकट भी रुक जाता है।”
थूबोन जी का यह आयोजन केवल एक संस्कार नहीं था –
यह आचार्य विद्यासागर परंपरा की जीवंत विरासत थी,
जिसे मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज ने अपने तेज, अपने तप और अपनी करुणा से पुनः प्रकाशित कर दिया।
उस दिन की हवा में भक्ति थी, धरती पर संस्कार था,
और वातावरण में एक ही गूंज थी –
“सम्यक्त्व की दीवाली मुबारक हो…”





